ग़ज़ल
हर शख्स टूट जाये मुकद्दर के सामने
शीशे की क्या बिसात है पत्थर के सामने
कोई गुलाब जैसा है चेहरा निगाह में
कटती है सुबह शाम गुल- ऐ- तर के सामने
हालांके दिल में एक समंदर ग़मों का था
लाये न अश्क आँख में दिलबर के सामने
लाशा (जनाज़ा ) मेरा उठा तो उन्हें जब पता चला
ये भीड़ क्यों लगी है मेरे घर के सामने
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